रविवार, 14 मई 2023

सुनहरे ख़ूबसूरत पिंजरे में कैद 'अच्छी माँ' का मातृ दिवस

आज विश्व मातृ दिवस है....मदर्स डे....सालों से सोशल मीडिया से ख़ासी दूर हूँ तो लोगों के जज़्बातों का शोर मुझ तक छन कर ही पहुँचता है...मुझे इससे सुकून ही रहता है पर ऐसे ख़ास दिनों पर जितना कुछ पहुँचता है, वो भी ज़मीन पर मिलने, दिखने और महसूस होने की हक़ीक़त के मुकाबले कहीं ज़्यादा अवास्तविक जान पड़ता है....वैसे दो साल पहले मैंने अपनी माँ को खोया है...तमाम कोशिशों के बावजूद उस दुःख से उबर नहीं पायी हूँ तो माँ के ज़िन्दगी में होने और न होने के फ़र्क को शायद बहुत अच्छे से जानती हूँ...हालाँकि एक बेहतर समझ बनने के बाद मेरे लिए मेरी माँ, मांओं की परम्परागत छवि के अन्दर कैद न रहकर एक अभिभावक के रूप में ही थीं...लेकिन वो ख़ुद के लिए तो उस छवि में ही रहीं, जब तक रहीं....

मैं अभिभूत हूँ आज लगभग हर किसी की अपनी माँ के लिए भावनाएं देखकर, उनको अपनी माँ के प्रति कृतज्ञ देखकर....न न.....मेरे लिए मदर्स डे जैसा कोई ख़ास दिवस माँ के लिए आरक्षित करने में कोई बुराई नहीं.....मसला असल मायनों में माँ के साथ कुछ ख़ास गुण और भूमिका जोड़कर ज़िन्दगी भर उसके साथ करने वाले अन्याय का है जो स्वार्थ की सभी हदों को पार कर जाता है और अगर हम ऐसा नहीं कर रहे तो इस ख़ास दिन के उत्सव में कोई परेशानी नहीं..जैसे फ़र्ज़ कीजिये कि अगर हमारी मां हमारे लिए सुबह उठकर चाय नाश्ता, स्कूल/ऑफिस का टिफ़िन, दिन और रात का खाना, तमाम तरह के पकवान न बनाये, हमारे लिए अपने कैरियर को तिलांजलि न दे, ख़ुद के लिए शॉपिंग करे, अपनी दोस्तों के साथ फ़िल्म देखने, घूमने, पार्टी करने जाए, खाना बनाने की जगह पॉपकॉर्न का कटोरा लेकर मैच देखने बैठ जाये....आदि आदि आदि....तब भी क्या हमारा वही रवैया होगा जो आज है? कविताएं भी वैसी ही होंगी? “ऐ माँ तेरी सूरत से अलग भगवान की सूरत क्या होगी”...क्या तब भी हम ये ही गीत गायेंगे....कहीं ऐसा तो नहीं कि एक ख़ास दिन पर बच्चों की DP पर आने और शुक्रिया के मैसेज पाने के एवज़ में एक स्त्री को ख़ुद को किनारे कर बच्चों के लिए जीने वाली जो कीमत चुकानी पड़ रही है वो उसके शोषण और उत्पीड़न के सिवा कुछ भी नहीं....बाक़ी चीज़ों में “प्रैक्टिकल” और “रीयलिस्टिक” होने वाले हम जाने क्यों सदियों से माँ के साथ होने वाले इस छल और धोखे के साथ बिलकुल सहज हैं...

आज माँ के प्रति इतनी कृतज्ञता देखकर मैं समझ नहीं पा रही हूँ कि सब इतना सुन्दर है तो वो कौन सी माएं हैं जो कुपोषण का शिकार हैं, परिवार में बेटे की चाहत पूरी न करने पर तिरस्कृत होती हैं, कई दफ़ा छोड़ दी जाती हैं...हर घंटे में नवजात को स्तनपान करवाने वाली माँ घर के सारे काम के साथ ये काम भी करे और रातों को शिशु के संग जागे भी....कितने ही लोग जानते होंगे कि प्रसव पूर्व व उसके उपरान्त एक बड़ी संख्या में महिलाएं अवसाद का शिकार होती हैं....पर परिवार उनके इस दुःख और चिडचिडेपन पर झुंझलाते ही हैं....थोड़ा और कुरेदें तो बच्चा जनने में कितनी स्त्रियों के माँ बनने के निर्णय में उनकी इच्छा भी शामिल होती है....और जब इतना सोच ही रहे हैं तो साथ में ये भी सोच लें कि स्त्री गर्भधारण करने में अपने या अपने साथी के किसी शारीरिक कारण की वजह से असफल हो तो हमारा ऐसी स्त्रियों, खासतौर से विवाहित स्त्रियों के प्रति क्या रवैया व शब्दावली होती है....गर्भधारण और प्रसव की पूरी तरह से प्राकृतिक प्रक्रिया को हम सब ने पितृसत्ता के पालन पोषण के लिए जिस तरह से महिमामंडित कर सामाजिक प्रक्रिया बनाया है उसने एक स्त्री को कभी एक आम इंसान की तरह जीने ही नहीं दिया...उसके हक़, इच्छाओं, सपनों को कुचल कर उसे एक खूबसूरत पिंजरे में कैद कर दिया...स्त्री को बचपन से उस सुनहरे पिंजरे का लोभ दिखाया गया और सबक ये मिला कि उस पिंजरे के भीतर ही उसकी असल सुन्दरता निखरती है....आसमान की ऊंचाइयां नापने वाली आज़ाद माँ किसी को नहीं चाहिए थी....हमारे आदर के पैमाने तय हैं हीं...हमारे लिए माँ आदरणीय तो है पर कुछ ख़ास प्रकार की माँ को ही ये जगह मिली है....इसपर शायद 4-5 साल पहले लिख चुकी हूँ

तो बात का लुब्ब ए लुबाब ये कि बेशक माँ को सेलिब्रेट कीजिये पर पहले उसे बराबर का इंसान मानिए, उसकी थकन, परेशानियों, झुंझलाहटो, तकलीफों, सपनों को समझिये....उसके परिवार के सदस्य के तौर पर उसके जीवन को अधिक सरल बनाने के लिए ज़िम्मेदारी साझा कीजिये...एक साथी के तौर पर, बेटी-बेटे के तौर पर, उसके सपनों इच्छाओं को जानें, उन्हें समय दें, आराम दें और अभिभावकों को बिना वजह भगवान बनाकर काम के बोझ से लादने के दबाव से मुक्त करें....                 

(लगभग चार साल बाद कुछ लिख रही हूँ....जैसा हमेशा कहती हूँ कि योजना बनाकर नहीं लिखती मन को जो लगता है लिख जाता है....आज भी वैसा ही है लेकिन ज़िन्दगी के एक अजीब उतार चढ़ाव में ऊपर नीचे होने के दौर में शायद खुद को बेहतर तरीके से अभिव्यक्त करना भी मुश्किल हुआ है...तो जो भी टूटा फूटा बन सका वो आपके सामने आ गया |)  

                

शुक्रवार, 24 मई 2019

क्योंकि ग़लती तुम्हारी थी !

मन कई बातों में उलझ सा जाता है... ऐसा कई बार होता है कि अपने विचार या राय को बदलने के लिये खुलापन होने के बाद भी मन कुछ मान नहीं पाता... कन्विंस होना एक बड़ा मसला है... कई बार उलझन कागज़ पर उतार देने से सुलझने लगती हैं पर कई बार तब भी ऐसा नहीं हो पाता... ज़िन्दगी की सबसे बड़ी लड़ाइयाँ ख़ुद से होती हैं... दिल - दिमाग़, सही - ग़लत, ख्वाहिशों - ज़रूरतों के बीच... इनमें दोनों तरफ़ से तर्क होते हैं जो ख़ुद के भीतर एक ऐसी जद्दोजहद पैदा करते हैं जो अक्सर उलझन से भर देती है... तो कुछ सुलझने समझने की उम्मीद में आज फिर लिखने बैठी हूँ.  

हम सबकी आमतौर पर अलग अलग विषयों पर कुछ न कुछ राय होती है... कुछ सही लगता है तो कुछ ग़लत और कहीं हम संशय में होते हैं... पर कई बार राय स्थितियों पर आधारित होती है... उदाहरण के लिए हम मानते हैं कि चोरी करना ग़लत है लेकिन हम लोग भ्रष्टाचार से जुड़ी चोरी, किसी के घर से नकदी ज़ेवरों की चोरी और किसी भूखे व्यक्ति द्वारा रोटी या खाने की चोरी या फिर एक बच्चे के किताब चुराने जैसी घटनाओं को एक ही खांचे में नहीं डालेंगे, हमारा नज़रिया फ़र्क होगा और उसका मतलब ये कतई नहीं होगा कि हम चोरी करने को सही ठहरा रहे हैं.

मेरे लिए स्थितियाँ बहुत मायने रखती हैं... मैं सामान्यीकरण से आमतौर पर बचती हूँ... हर जगह कोई एक थंब रूल जैसा कुछ हो, ज़रूरी नहीं... तो आज बात ऐसी जो मेरे लिए बहुत जटिल है... मुझे आमतौर पर अपने साथियों के बीच इस विषय पर असहमतियां मिली हैं पर मेरा मन कन्विंसनहीं हो पा रहा शायद इसलिए भी क्योंकि मैंने उन घटनाओं को निजी तौर पर अपने आस पास देखा है लेकिन जिसे मेरे साथी सिरे से ख़ारिज कर सकते हैं... मैं जजमेंटल होने की जल्दबाज़ी नहीं करना चाहती, समझना चाहती हूँ...

रिश्ते... इनसे जटिल भला क्या होगा... तो बात आज टूटते रिश्तों, धोखों और नतीजों की... आसानी के लिए कुछ काल्पनिक नाम रख लेते हैं... मीना और रमेश... दोनों प्रेम में हैं... सालों से प्रेम है, भरोसा है, आत्मीयता है... नज़दीकियाँ बढ़ती ही हैं, अंतरंगता होती है, दिल जुड़ा है दिमाग़ जुड़ा है तो देह को नज़दीक आने में झिझक नहीं होती, अच्छा ही लगता है... कुछ वक़्त बाद रमेश रिश्ता ख़त्म कर देता है... दिल टूटता है और उसके साथ और भी बहुत कुछ... मीना कानून को आवाज़ देती है और कहती है उसके साथ बलात्कार हुआ है... ऐसा क्या है कि एक वक़्त पर आपसी सहमति से बने संबंधों को अब बलात्कार कह दिया जाता है?

अब इस घटना पर तमाम राय बन सकती हैं... जैसे एक आम राय ये है कि अगर उसने आपसी सहमति से सम्बन्ध बनाये थे तो अब क्यों कह रही है? दूसरी ये कि लड़कियां इतनी जल्दी बिछ क्यों जाती हैं और जब करती ही हैं तो बाद में रोना क्यों? तीसरी ये कि उन्हें ऐसे कैसे समझ नहीं आता कि उनके साथ धोखा हो रहा है, वैसे तो दुनिया भर की अक्ल है... ऐसा नहीं हो सकता कि समझ में न आये, हमें तो समझ में आ जाता है... चौथी ये कि लड़कियों में जब ज़रा भी हिम्मत नहीं तो रिश्तों में जाती ही क्यों हैं और गयी हैं तो शारीरिक सम्बन्ध क्यों बनाती हैं और जब सब कर लिया तो हाहाकार क्यों? (मैंने मानवाधिकार पर काम करने वालों से भी ये सुना है कि जेन्डर में जो कहा जाता है हमें उसका उल्टा लगता है... तब मज़े ख़ुद भी करती हैं और बाद में ये रोना) ...पांचवीं राय ये भी हो सकती है कि ये स्थितियों पर निर्भर करता है कि क्या राय बनायी जाए, क्या सही है क्या ग़लत... इस तरह की तमाम राय बन सकती हैं और मैं इनके ही बीच उलझी हूँ... मेरी राय पांचवी रहती है लेकिन मुझे आमतौर पर उसमें असहमतियां मिली हैं... कभी चर्चा में वाद-विवाद सी स्थितियाँ होने की वजह से बात नहीं हो पाती तो कभी सामने बैठे व्यक्ति के हठ के चलते... उन स्थितियों में अपनी बात कहने की कोशिशें की हैं लेकिन कुछ फायदा हुआ नहीं... ऐसा भी हुआ कि ऐसी प्रतिक्रियाओं के चलते अब चर्चा करने की इच्छा ही ख़त्म हो गयी बस अपनी असहमति भर दर्ज करायी... पर ख़ुद का आकलन ज़रूरी है और इसलिए कुछ बातें विस्तार से कहनी ही चाहिए...

बहुत कुछ है... समाज, परिवार जैसी संस्थाएं, साथी, सरकार, कानून और हॉर्मोन... क्यों न ऊपर हुई घटना को अलग अलग स्थितियों में रखकर देखें -

पहली स्थिति ये कि मीना और रमेश छोटे शहर के सामान्य मध्यम या निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों से हैं... ऐसे परिवार के माहौल, व्यवहार, धारणाओं, नियम, परम्पराओं, लड़कियों और बल्कि लड़कों को भी मिलने वाली आज़ादी को ध्यान में रखें... खैर... दोनों साथ पढ़ते है, एक दूसरे की ओर आकर्षित होते हैं प्रेम हो जाता है... मीना उस माहौल और समझ से है ही नहीं कि वो शादी के बिना रिश्ते की कल्पना करे... ये उसके, उसके परिवार और समाज के लिए उसके चरित्र का प्रश्न है... पर रमेश का कहना है कि वो मीना से शादी करेगा, मीना को प्रेम है और इस नाते रमेश पर भरोसा है... एक ऐसी स्थिति जब मानसिक तौर पर युवा अलग ही तरह सोचते हैं... अपनी इच्छा से प्रेम करना, साथी चुनना व उसके साथ आगे की ज़िन्दगी बिताना हमारे समाज में एक लड़की के लिए आज भी बहुत बड़ी बात है... जिस व्यक्ति से प्रेम है, शादी होनी है, जिसके साथ रहना है तो शारीरिक सम्बन्ध बनाने में झिझक क्यों हो... मीना ये सोचकर उस देह को आज़ाद करती है जो उसके लिए सबसे कीमती है, शायद उसकी जान से भी ज़्यादा... होगी ही लड़की की इज़्ज़त और चरित्र उसकी जान से नहीं, देह और योनि से जुड़े होते हैं... पर अब जब शादी करने का समय आया तो रमेश आनाकानी करने लगा... तुम मेरे घर के माहौल में एडजस्ट नहीं कर पाओगी... मेरे घर वाले नहीं मानेंगे... मैं उनके विरुद्ध नहीं जा सकता... अभी थोड़ा और समय दो... पहले बहनों की शादियाँ करनी हैं... आदि आदि... दोनों के बीच बातचीत, चर्चा, झगड़े, मान-मनौव्वल कुछ काम नहीं कर रहे... रमेश ने तय कर लिया कि रिश्ता अब नहीं चल सकता... मीना निःशब्द है वो क्या करे...

अगर घर पर रिश्ते के बारे में नहीं पता है तो ये ख़ुद में चलता एक तूफ़ान है... किससे कहे, क्या कहे उसके साथ धोखा हुआ है, उसका भरोसा जीतकर, ख़ुद का मन बहला कर छोड़ दिया गया, अवसाद, दुःख, हताशा, गुस्सा, सबक सिखाने की भावना से लेकर आत्महत्या का ख़याल आना कुछ भी हो सकता है... अगर घर पर रिश्ते के बारे में पहले से पता था तो अब कैसे बताये कि लड़का शादी करने से इनकार कर रहा है... घरवालों ने तो पहले ही मना किया था... जाने क्या कुछ कहेंगे करेंगे? अब जल्दबाज़ी में जाने किस आदमी से उसकी शादी करा देंगे और उसे कुछ भी कहने का हक़ नहीं रहेगा... उसके दुःख से किसी को मतलब नहीं रहेगा क्योंकि वे तो शादी से पहले प्रेम को ग़लत मानते हैं... पर वह इस छल को घुटकर नहीं सहना चाहती, ये टीस ज़िन्दगी भर तक दिल दुखाने वाली है... उसे धोखा दिया गया और एक कानून इन स्थितियों में उसकी मदद कर सकता है... वो रमेश को सबक सिखाना चाहती है और कानून की मदद लेती है.  

अब भी कई राय बन सकती हैं... जैसे परिवार, समाज और चरित्र की इतनी चिन्ता थी तो प्रेम किया ही क्यों, कर ही लिया था तो सम्बन्ध क्यों बनाये, इतना विश्वास कैसे कर लिया, कोई एक बार बेवकूफ़ बना सकता है, दो बार, पर सालों तक ऐसा नहीं हो सकता... अगर सबकुछ भूलकर किया ही तो अब उसे बलात्कार न कहो... जब बेवकूफ़ी की है तो फिर झेलो भी... हम ये राय बनाते हैं... कहते हैं... पर जाने क्यों ये एक अजीब जल्दबाज़ी लगती है मुझे...

क्या हम ये कहना चाहते हैं कि परिवार न चाहे तो प्रेम न करो, करो तो विश्वास मत करो और इतना तो कतई मत करो कि अन्तरंग सम्बन्ध बनाओ... ये सब ग़लत है... अगर ऐसा किया है तो तुम ज़िम्मेदार हो... तुम्हें शिकायत का हक़ नहीं... हॉर्मोन से कहो कि जब तक शादी हो नहीं जाती वे शांत रहें और अगर न रहें तो उन्हें नियंत्रण में रखो... हम ये भूल जाते हैं कि हम उस समाज का हिस्सा हैं जहाँ सेक्स सिर्फ़ पति के साथ करना ही सही होता है... पुरुष ये जानता है इसलिए वो शादी का वादा करता है... उसे पता है इसके बिना उसे लड़की का मन भले मिल जाये, देह न मिल सकेगी जबकि उसकी दिलचस्पी देह में ही है... पर हम एक साधारण सी दलील के साथ लड़के को आसानी से बरी कर देते हैं कि लड़के तो होते ही ऐसे हैं...      

हम जो अब भी घरों में पीरियड पर बात नहीं कर सकते, एक उम्र में हो रहे शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक बदलावों और ज़रूरतों को क्या ही समझेंगे... हमारे पास इसके लिए भी आसान सी दलील है कि हम भी तो हैं, हमने तो नहीं किया कभी ऐसा, क्या हमारे भीतर हॉर्मोन नहीं, क्या हमारा मन नहीं हुआ होगा... और ऐसा कहते ही हम बड़ी शान से अपनी श्रेष्ठता का सर्टिफिकेट जारी कर देते हैं... 

दूसरी स्थिति भी देखें... मीना और रमेश चार साल से प्रेम संबंधों में हैं... वे दोनों हैं तो सामान्य-मध्यम या निम्नवर्गीय परिवारों से लेकिन अपनी पढ़ाई के दौरान उनकी चेतनाएं अलग तरह से विकसित हुई हैं जिन्होंने उन्हें समझ और आत्मविश्वास दिया है... शादी का वादा था... वे नज़दीक आते हैं, शारीरिक सम्बन्ध भी बनते हैं लेकिन समय के साथ साथ रिश्ते में दिक्क़तें होने लगती हैं, दोनों में टकराव होते हैं, बहस होती हैं, प्रेम का वो सम्मान वाला स्वरूप बचा ही नहीं रहता और स्थितियाँ कुढ़न भरी होने लगती हैं... रमेश पहल करता है और रिश्ते को ख़त्म करने की बात करता है... जब प्रेम ही नहीं रहा तो इस सम्बन्ध का क्या मतलब... इसे ख़त्म करना ही दोनों के लिए बेहतर है... अपनी काफ़ी हद तक बदली चेतना के बावजूद मीना की जड़ें पारंपरिक रूढ़िवादिता से उखड़ी नहीं हैं... वह ज़िद में है कि सबक सिखाएगी और कानून की मदद लेगी...

इसमें भी राय बन सकती है कि अगर पहली वाली स्थिति में लड़की सही है तो इसमें भी बात तो वही है... दरअसल बात पूरी तरह वो नहीं है... इस स्थिति में यदि दोनों की समझ व भावनाएं पहले जैसी चल रही होतीं तो रिश्ता नहीं टूटता... ये दोनों के लिए दुखद था... रमेश का इरादा नहीं था... उसने साथ रहने की ही उम्मीद रखी थी... रिश्ते में साफ़गोई थी, कुछ छुपी साज़िश नहीं थी... इसलिये इसे धोखा कहना शायद सही नहीं... हाँ इतना ज़रूर है कि लड़की के लिए उसके परिवार में समय ठीक उसी तरह कठिन हो सकता है जैसा पहली स्थिति में हुआ.

इन स्थितियों में भी मीना क्यों रमेश पर आरोप लगा रही है या गुस्से से भरी है? दरअसल उसके पीछे वो ख़ुद ज़िम्मेदार नहीं... उसकी जड़ें जहाँ फंसी हैं और उसके जीवन में अब जिस तरह की दिक्क़तें आने वाली हैं, उन्होंने उसे गुस्से से भर दिया है... प्रेम उसमें भी नहीं बचा लेकिन अपनी भावनाओं और स्वाभिमान को वो इसलिए भी किनारे कर रही है क्योंकि आगे की राह सिर्फ़ उसके लिए मुश्किल होगी, रमेश के लिए नहीं... प्रेम हो या सेक्स वो लड़की के लिए नहीं... लड़के से कोई सवाल नहीं होता पर लड़की के जीवन में ये बात इतनी ज्यादा की जाती है कि वो चाहते हुए भी पूरी तरह इन उलझनों से आज़ाद नहीं हो पाती... ये सब कहते हुए मैं फिर दोहराऊंगी कि इस स्थिति में धोखा कहना या बलात्कार का आरोप लगाना सही नहीं... मैं बस उसकी प्रतिकिया और स्थिति समझने की कोशिश कर रही हूँ. 

और धोखे का क्या है वो बहरूपिया होता ही है... आप प्रेम में ऐसी समझदारी की कल्पना जाने कैसे कर पाते हैं जहाँ बात शुरू ही एक भरोसे से होती है... अब ये ही स्थितियाँ देखिये कि मीना और रमेश अलग अलग शहरों में अलग अलग नौकरियों में हैं... तकनीक ने दूरियों को कम किया है... सालों साल प्रेम रहता है क्योंकि भरोसा रहता है और सालों बाद अचानक शादी की बात पर लगातार रमेश की आनाकानी देखते हुए जब मीना का माथा ठनकता है और खोजबीन करायी जाती है तो पता चलता है कि सालों का छल था... रमेश का बसा बसाया परिवार है... मीना के साथ बस मन बहलाने का काम हो रहा था... इसी तरह ऐसा भी हो सकता है कि टीनेज की उम्र से ही परवान चढ़ने वाला प्रेम सालों साल बना रहता है... मीना की दुनिया रमेश के इर्द गिर्द सिमट जाती है... शौक, संगी साथी, काम, प्राथमिकताएं सब कुछ... रमेश के माता पिता शादी के ख़िलाफ़ थे... वजह कोई नहीं थी सिवाय इसके कि वे बेटे को अपनी मर्ज़ी से शादी नहीं करने देना चाहते... एक शाम अचानक मीना को पता चलता है कि रमेश ने शादी कर ली... दोनों ही मामलों में शादी का वादा था, कोई टाइम पास या ट्रायल मोड नहीं था... सालों शादी की बात कायम रही... शादी जो अब बस नाम के लिए करनी थी क्योंकि साथी के तौर पर वे सालों से साथ थे ही... ऐसा होता है ये मनगढ़ंत नहीं, ख़ासी पढ़ी लिखी लड़कियों के साथ भी होता है...

पर राय बनते देर नहीं लगती... अब ये तो बेवकूफ़ी ही है... ऐसा नहीं हो सकता कि सालों साल आपको पता ही न चले... जिन लड़कियों के इतनी भी अक्ल नहीं वो फिर डिज़र्व भी ये ही करती हैं... हम नहीं चाहते कि शादी से पहले सेक्स करने वाली लड़कियां बाद में धोखे की शिकायत करें... पर ऐसा होता है कि कई बार पता नहीं चलता, ख़ासतौर से प्रेम में होने पर... वहां भरोसा एक अलग ही स्तर का होता है... लड़कियों की परवरिश साथियों पर शक करने वाली नहीं होती... जिस साथी के साथ वो वैवाहिक सम्बन्ध में जाने का निश्चय कर चुकी होतीं हैं वहां तो बिल्कुल भी नहीं... लड़कियों को समर्पण वाला प्रेम सिखाया जाता है... इसमें वो इस तरह की समझदारी कैसे दिखाएंगी... और इस तरह के धोखे में हमने बहुत समझदार लड़कियों को फँसते देखा है... उन्हें किस बात का दोष दूँ, ईमानदारी के साथ टूटकर मुहब्बत करने का?              

इस तरह तमाम तमाम स्थितियाँ बन सकती हैं जैसे एक ये ही कि रमेश और मीना साथ पढ़े, आकर्षित हुए, शारीरिक सम्बन्ध बने पर शादी की बात कहीं नहीं थी... दोनों के बीच ये समझ भी थी... सम्बन्ध आकर्षण से उपजा था प्रेम से नहीं... वे मित्र थे, एक दूसरे के शुभचिंतक थे... पर समय के साथ साथ दोनों में से किसी एक को प्रेम हो जाता है... मान लीजिये मीना को ही हो गया... रमेश को नहीं हुआ... मीना अपनी भावनाएं साझा करती है, प्रोपोज़ करती है पर रमेश मना कर देता है... अपनी जगह न मीना ग़लत न रमेश... मीना ये इनकार नहीं ले पाती और रमेश को हासिल करने की उसकी चाह में वो बलात्कार की बात कहती है... (ये ध्यान रखें कि अनुपात में इस तरह के मामले सबसे कम होते हैं... लेकिन स्थितियाँ क्योंकि कई तरह की बन सकती हैं इसलिए यहाँ दर्ज किया जा रहा है.)

मीना को प्रेम हुआ इसमें क्या ग़लत? प्रेम दिमाग़ से कम ही होता है बल्कि जब प्रेम होता है तब वो तर्कों पर नहीं भावनाओं पर होता है... कैलकुलेट नहीं हो पाता... आपकी समझ जिसके लिए इनकार करे कई बार मन सब जानते हुए भी मजबूर हो जाता है... जो काबू कर लेते हैं वो ठीक पर जिनकी दिल के आगे नहीं चलती वो कुछ नहीं कर पाते... हाँ शादी करने से पहले ज़रूर व्यक्ति थोड़ा सोचता समझता है, जोड़ घटाना करता है... और जो लोग प्रेम में पड़ते वक़्त भविष्य में उस व्यक्ति को जीवनसाथी के तौर पर देख रहे होते हैं वे भी जोड़ घटाना करने लगते हैं... कहीं कुछ ग़लत जैसा नहीं... पर ग़लत रमेश भी नहीं... वो जिस जगह पर रिश्ते की शुरुआत में था वहीं पर अब भी है, मीना की तरह उसमें ऐसी भावना नहीं आई पर ऐसी किसी भावना की बात हुई भी नहीं थी... आज़ादी थी कि जब जो रिश्ते से निकलना चाहे दूसरा उसे परेशान न करेगा फिर ये क्या? ज़ाहिर है एकतरफ़ा प्यार से उपजे इस बदले को सही नहीं कहा जा सकता. 

ये कुछ ही स्थितियाँ है... ये ऐसा उलझा विषय है जिसमें जाने कितने पक्ष हो जाते हैं, क्या स्थितियाँ बन जाती हैं... हम बहुत आसानी से जजमेंटल हो जाते हैं... बिना ये सोचे कि हमारे जीवन में प्रेम, शादी, साथी, सेक्स और समाज के मायने लड़की और लड़के के लिए एक नहीं होते... वो बेहद फ़र्क हैं... अगर इस तरह देखेंगे तो हम मीटू अभियान पर सवाल उठाने वालों से ज़्यादा दूरी पर नहीं हैं...

हमारे समाज में लड़की की दो जगहें हैं... शादी से पहले मायका और उसके बाद ससुराल... इसके बीच कहीं कुछ नहीं... वो प्रेम में पड़ती है पर ध्यान में एक अच्छा साथी, और एक सुंदर जीवन तक पहुँचने का सुखद रास्ता होता है... यानी उसके ध्यान में भविष्य की वो सामाजिक सुरक्षा है ही... क्या हमारे यहाँ सेक्स इतनी सहज बात है कि उसे आत्मग्लानि न हो? अगर ऐसा होता तो ये मसला इतना बड़ा होता ही नहीं... पर क्या इसका मतलब ये है कि सेक्स करना ग़लत है? हम कहते हैं कि सेक्स करना ग़लत नहीं, प्राकृतिक है, शोध बताते हैं कि इसके वैज्ञानिक आधार हैं, हमारी माइथोलॉजी से लेकर गुफाएं, चित्र, फ़िल्में सब इससे भरी हैं... बाकी छोड़ें इन्टरनेट पर पोर्न देखने वालों की संख्या ही देख लें... सब कुछ है पर ये लड़की के लिए नहीं... ये बात हमें बचपन से लेकर ज़िन्दगी भर बार बार तरह तरह से बताई जाती है... जो लड़कियां सेक्जुअली एक्टिव हैं भी वो अपनी ख़ास से ख़ास दोस्तों के सामने भी स्वीकार नहीं करतीं क्योंकि इसे जाने कब प्राकृतिक न समझकर चरित्र का सवाल बना दिया जाए... और अगर किया तो फिर बाद में कभी शिकायत नहीं कर सकते... ‘मज़े लेना’, ‘घाट घाट का पानी पीना’, ‘खाई अघाई’, ‘बड़ी आग लगी होनाजैसी जाने कितनी बातें मैंने ऐसी लड़कियों के लिए उन लोगों के मुंह से सुनी हैं जिनसे ज़रा भी अपेक्षित नहीं था... ये हौव्वा बनता क्यों है क्योंकि सेक्स को हमने, हमारे परिवार और समाज ने हौव्वा बनाया है, मगर सिर्फ़ लड़की के लिये... प्रेम पर कहानियां हैं, कवितायें हैं, किताबें, सालों साल चलने वाले धारावाहिक हैं... राधा कृष्ण, हीर रांझा, सबकी मिसालें हैं, वाल्मीकि रामायण में शिव पार्वती की यौन क्रिया का वर्णन तक है... पर प्रेम करना ग़लत है... रोमांस को देख पढ़ भले लो पर अन्तरंग होना सही नहीं... छले जाने पर अपनी पीड़ा को कहना तो और भी ग़लत... प्रेम किया तो उसमें मिले छल को ख़ामोशी से अपने भीतर ज़ब्त कर ज़िन्दगी भर टीस को झेलना... ये तुम्हारी सज़ा है क्योंकि ग़लती तुम्हारी थी... तुम लड़की हो और ये बात भूलकर तुमने अपनी पसंद की ज़िन्दगी जीने की कोशिश की.    

हम क्यों नहीं सोचते कि लड़कियों के साथ ही समस्या क्यों होती है... ऐसा इसलिये कि लड़कों पर वर्जिनिटी बचाने का कोई दबाव नहीं, वे जब जिस उम्र में चाहें सेक्स कर सकते हैं, उनके चरित्र के साथ समाज का वो रवैया नहीं होगा जैसा एक लड़की के साथ होता है, लड़कों के लिए ये उनकी मर्दानगी है जिसे दिखाना साबित करना उनकी शान ही होगी जबकि लड़की के लिए उसे बचाना लड़की का धर्म... इस वर्जिनिटी को सिर्फ़ अपने पति के ज़रिये ही खोना होता है चाहे इच्छा हो या न हो, पसंद का साथी और प्रेम हो या न हो या... पर कई बार जिसको भविष्य का साथी सोचा था उसने ही छल कर दिया तो? लड़की की ऐसी प्रतिक्रियाएं कई बार हमारे समाज के बनाये माहौल का ही नतीजा होती हैं... क्या पता कि ऐसा माहौल न हो तो झूठे वादे भी कम हो जाएँ.

ये अंतहीन विषय है पर मुझे ये कहने में कोई झिझक नहीं कि हमारा समाज लड़की के लिए अनुकूल कतई नहीं और अभी उनके लिए काम करने वालों को भी एक लम्बा रास्ता तय करना है लड़कियों को समझने के लिए... हमें दहेज़, घरेलू हिंसा, पढ़ाई-लिखाई-जेन्डर व्यवहार-परवरिश-पितृसत्ता-भेदभाव के अन्य मामलों, बलात्कार की घटनाओं, जातीय हिंसाओं में तो उससे सहानुभूति है लेकिन इस एक मामले में हमारे नियम तय हैं - किया क्यों, किया तो शिकायत क्यों? मुझे बस ये पता है कि टूटे रिश्ते जीवन का अन्त नहीं होने चाहिए पर अपनी राय बनाते समय हमें भी बुलेट ट्रेन की जगह ज़रा पैसेंजर पर सवार होना चाहिए... खिड़की से बाहर नज़दीक के दृश्य तभी साफ़ दिखेंगे.     

रविवार, 25 नवंबर 2018

दिल के कोने में यादों समेत महफ़ूज़ 'कोने अंकल'

सारे ही काम तो हो रहे हैं, कुछ भी तो नहीं रुका...खाना पीना, सोना जागना, हँसी मज़ाक बल्कि घूमना फिरना भी...ये क्या है जो कल से बवंडर सा मेरे भीतर घूमे ही जा रहा है...इधर उधर की जाने किन किन बातों को अपनी ओर खींचता और तेज़ रफ़्तार का तूफ़ान लाता हुआ...बचपन की यादें बेहद धुंधली हैं ज़्यादातर याद ही नहीं...जो याद हैं उनमें भी अधिकतर दुस्वप्न सी हैं...पर मेरी उन तमाम यादों में एक शख्स़ की याद है जो बहुत बहुत प्यारी है, मेरे लिए बेहद ख़ास और मेरे बचपन की यादों का एकमात्र हिस्सा जो ख़ूबसूरत भी था और याद भी है...कोने अंकल !


उदयगंज के उस किराये के घर में बीच में एक बड़ा बरामदा था और चारों तरफ़ किरायेदार...कुल मिलाकर 4 परिवार...हमारे सामने की ओर दाहिने कोने में वो अंकल रहते थे...उनका परिवार ग़ाज़ीपुर में रहता था...वो सचिवालय में कार्यरत थे तो यहाँ अकेले रहते थे...एक छोटा कमरा और उसके आगे आंगन...कमरे में दाख़िल होते ही ठीक सामने अंकल के माता पिता की तस्वीर दीवार में टंगी दिखती...बायीं तरफ़ एक तख़्त जिसमें हल्की रंगीन धारियों वाली एकदम साफ़ सुथरी चादर बिछी रहती थी...कुछ ऐसे कि उनकी सिधाई आप स्केल से भी चेक कर लें...तख़्त के बगल में दीवार में बनी अलमारियाँ...तब लकड़ी की अलमारियाँ आमतौर पर चलन में नहीं थीं...उन अलमारियों में कुछ बांसुरियां रखी रहती थीं...अलग अलग साइज़ की...अंकल फ़ुर्सत में होते तो कभी कभी बजाया करते...नीचे की अलमारियों में किताबें...बायीं ओर की अलमारियों की तरह उस दीवार के दाहिने कोने में भी अलमारियाँ बनी थीं...लैय्या मूंगफली की नमकीन, सेंव, गुड़ से बनीं कुछ चीज़ें और ऐसा ही और सामान काँच की साफ़ सुथरी बोतलों में रखा रहता...अलमारी के बगल में टेलीविजन जिसमें लकड़ी के खिसककर बंद करने वाले शटर होते थे...टीवी के ऊपर एक साफ़ सुथरा कपड़ा बिछा होता, उसके ऊपर एक चपटा लम्बा टेपरिकॉर्डर, बगल में एल्युमीनियम का छोटा सा बक्सा जिसमें कैसेट रखे होते...इसके बगल में एक बड़ा सा बक्सा....उस छोटे से एक कमरे में कुल मिलाकर बेहद करीने से रखा बस ये ही सामान था...तख़्त और बक्से दोनों के बगल में खिड़कियाँ थीं...रसोई बाहर आंगन में थी...और बक्से के सामने वाली खिड़की में आंगन की तरफ़ से कूलर रखा था जिसपर गहरे हरे रंग का पेंट था...बर्तन धोने के लिये बाल्टी मग आंगन के दाहिनी ओर...ईमानदारी से कहूँ तो मुझे अपने घर की व्यवस्था और परिवार के लोगों के व्यवहार इतने अच्छे से याद नहीं है...और ये भी सच है कि आज तक मैंने कभी इतना सुव्यवस्थित घर किसी का भी नहीं देखा...बचपन में जिस माहौल में मैं थी उस हिसाब से इस घर में तमाम चीज़ें देखकर मन में कौतुहल होना या मेरा उत्साहित होना लाज़मी भी था.. 

मुझे नहीं पता क्यों मैं उनकी ऐसी लाडली थी...बाज़ार जाते तो साथ ले जाते...दफ़्तर से घर आते तो मैं उनके घर पहुँच जाती...वो कटोरी में मुझे लैय्या मूंगफली की नमकीन देते और उठाकर बक्से के ऊपर बैठा देते कि मैं कूलर की हवा भी खा लूं और खिड़की से उनसे बातें भी करती रहूँ......ख़ुद बाहर रसोई में अपने लिए रात के खाने की तैयारी करने लगते...आटा गूंदने के बाद पहले उसकी छोटी छोटी गोलियां बना लेते फिर एक एक करके रोटियाँ बेलते...एकदम गोल...जब जब मछली बनाते अपने घर से आवाज़ दे देते कि आज तुम्हारी दावत यहाँ है...काँटे वाली मछली कैसे खायें ये भी सिखाते...उनके हक़ से आने वाले इस न्योते पर मेरे शाकाहारी परिवार ने कभी कोई रोक टोक नहीं की...पूरे घर में बस उनके पास ही कैमरा था तो कभी कभी फ़ोटो भी खींचते...सारे किरायेदारों में आर्थिक रूप से वे सबसे बेहतर थे...आंटी ग़ाज़ीपुर में सरकारी इंटर कॉलेज में प्रिंसिपल थीं...उस घर में सबसे पहले स्कूटर उनके पास ही आया था..बादामी रंग का एलएमएल वेस्पा...रविवार का दिन ख़ास होता था फ़िल्म और तमाम धारावाहिकों की वजह से...उस दिन उनके कमरे की फर्श पर एक चटाई बिछती जिसमें घर के बाकी सारे बच्चे और कुछ बड़े बैठते...मैं तख़्त पर अंकल की गोद में बैठती...और इस बात का मुझे मन ही मन घमंड भी था....

उन्हें क्या कह कर बुलाना चाहिये ये मुझे क्या पता होता...मैं पैदा होते ही उसी घर में आई थी तो वही पली बढ़ी थी...ये सब बातें किसी ख़ास उम्र की नहीं, हों भी तो मुझे याद नहीं...पर उनका घर कोने में होने के चलते उनका नाम कोने अंकल रख दिया था और उसके बाद तो घर के बच्चे बड़े सब उसी तरह बुलाते...ऊपर माया बुआ के वो कोने वाले भाई साहब हो गए, माताजी के कोने वाले भैया और हमारे कोने अंकल...जाने कितने सालों तक तो मुझे पता भी नहीं था कि उनका असली नाम घनश्याम वर्मा है...मेरे लिए वो हमेशा ही कोने अंकल रहे...

हमारा परिवार वहां से अपने घर आ गया...उसके बाद कुछ समय के लिए वे उस किराये के घर में हमारे वाले कमरों में चले गए थे...ऐसा नहीं था कि बचपन में मैं बड़ी बातूनी थी या वो बहुत गप्पें मारते थे...हम बात करते थे क्या बात करते थे, ये याद नहीं...पर मैं बेहद सहज होती थी, मुझे अच्छा लगता था ये याद है...बहुत साल पहले वो लिली दीदी (उनकी बेटी) के साथ आये थे मिलने...अब उतनी बात नहीं हुई...मेरे भीतर एक संकोच सा आया पर आदर और प्यार में कहीं कोई कमी नहीं थी...सब अपने अपने जीवन में व्यस्त होते गए...पर मेरे ज़ेहन में वे हमेशा रहे...रिटायर होकर वे ग़ाज़ीपुर चले गए थे और मेरे पास कोई संपर्क ही नहीं था...कितनी मशक्कत के बाद उन्हें फ़ेसबुक पर ढूँढा था...पापा से भी बात करवाई...मेरी तस्वीरों पर वो कुछ कमेंट कर आशीर्वाद देते रहते...सुना कुछ महीनों पहले लखनऊ आये थे और मिलना चाहते थे...साधन न होने की वजह से नहीं आ पाए...जाने क्यों फ़ोन नहीं किया या कोशिश की और संपर्क नहीं हुआ...

कल पापा पुराने मोहल्ले की तरफ़ गए थे...बताया गया कोने अंकल नहीं रहे...दो महीने पहले गुज़र गए...मेरे भीतर के एक रंग रौशनी रौनक भरे हिस्से में अचानक अँधेरे से भरा गहरा सन्नाटा खिंच गया...मेरे बचपन का सबसे प्यारा और एकलौता इतना ख़ूबसूरत हिस्सा मानो किसी ने छीन लिया हो...ज़िन्दगी के उस अजीबोग़रीब वक़्त में वो एक समय था जिसे ऑक्सीजन कहा जा सकता है....भीतर क्या कुछ हो रहा है कि किसी को बताना मुश्किल है, अजीब सी स्थिति है..अफ़सोस, दुःख, पीड़ा, शॉक पता नहीं...जाने कौन कौन सी स्मृतियाँ लौट लौट कर आ रही हैं...कहा न काम कोई नहीं रुका पर भीतर कुछ थम गया...समझाना भी मुश्किल है और किसी का समझना भी...वो मेरे लिए कितने ख़ास थे ये तो मैं कभी उन्हें भी नहीं बता पायी...जब हर किसी से मैं दूर भागती थी उस एक वक़्त उनके साथ मैं एकदम सहज सुरक्षित होती थी...अपने परिवार के सदस्यों की भी इतनी महीन यादें नहीं मेरे ज़ेहन में, पर उनकी हैं....मुझसे उनका जुड़ाव भला कैसे कम होगा...उनके गले लगकर शुक्रिया कहने की तमन्ना ही रह गयी...जिन्हें मैंने ‘कोने अंकल’ नाम दिया था उन्होंने एक दिन अपने यहाँ बर्तन धोते हुए मेरी माँ से कहा था.... “इसका नाम रखिये...रश्मि !”  

बुधवार, 10 अक्तूबर 2018

मैं समझ सकती हूँ कि तुम नहीं बोल पायी... और यक़ीन मानो तुम नहीं बोल पायी तो ये कोई ग़लती नहीं थी...

मुझे शोर बहुत परेशान कर देता है....इतना कि मैं कोशिश करती हूँ इससे जितना दूर रह सकूँ रहूँ...कहीं  कहीं से ख़ुद को अलग कर देना पड़े तो भी गुरेज़ नहीं...सोशल मीडिया एक उदाहरण है...जब जब वहां का शोर असहनीय हो जाता है मुँह फेर लेती हूँ...कुछ दोस्त मज़ाक में चिढ़ाते हैं कि तुम्हें बुढ़ापा आ गया है...पर मैं अपने इस शेल में सुकून पाती हूँ...दिन, रात, फूल, पत्ती, चाँद, सितारे, सूरज, आसमान, मिट्टी, बच्चे, प्रेम, मुस्कुराहटें....मैं कई बार ख़ुद को इन तक ही सीमित रखना चाहती हूँ  

इन सब में ऐसा कतई नहीं कि शोर मेरा पीछा छोड़ देता है...किसी न किसी रास्ते वो दरवाज़ा खटखटाने ही लगता है...हमेशा न तो आँखें मूंदी जा सकती हैं न ही कान ढंके जा सकते हैं...और बाहर के शोर को जैसे तैसे रोक भी लिया जाए पर जो भीतर है उससे कैसे निपटा जाये..उसे न तो नज़रंदाज़ करते बनता है न भूलते...

इस वीकेंड #MeToo का कुछ ऐसा ही शोर रहा...बात लड़कियों के उन अनुभवों की थी जब अपने कार्य स्थल में उन्हें यौन हिंसा का सामना करना पड़ा...अभिनय, पत्रकारिता, फ़िल्म निर्माण, लेखन के क्षेत्र से जुड़ी लड़कियों ने जब अनुभव साझा करने शुरू किये तो एक के बाद एक छवियाँ टूटती गयीं...हमारे बीच रोज़गार की जगहें व वहां के माहौल में दिन के उजालों में भी अँधेरे ही पसरे मिले...मैं हमेशा ही कहती हूँ कि जितना हम रिपोर्टों में देखते हैं असलियत उससे कहीं ज़्यादा है क्योंकि अधिकाँश बातें दर्ज ही नहीं हैं...मेरे हिसाब से तो शायद ही कोई ऐसी लड़की होगी जिसे कभी यौनिक हिंसा का सामना न करना पड़ा हो...हम अपने समाज की पढ़ी लिखी काबिल लड़कियों को काम करने के लिए ये ही माहौल दे पा रहे हैं.. ध्यान रहे, घर कोई सुरक्षित नहीं और कार्यस्थल में भी हर महिला शामिल है इसका उसके पद, शैक्षणिक योग्यता या अनुभव से कोई लेना देना नहीं...ऐसी किसी भी बात से उसकी गरिमा कम या ज़्यादा नहीं हो जाती

इस उथल पुथल में पिछले 2-3 दिन तबियत बड़ी भारी रही...मैंने कोई चर्चा नहीं सुनी...एक जगह 2 मिनट के वीडियो पर बहस इस बात पर थी कि इस प्रकार की हिंसा को अन्य प्रकार की महिला हिंसा या यौन हिंसा के साथ देखा जाए या नहीं, उन लड़कियों को सोशल मीडिया पर कहना चाहिये या नहीं, इतने सालों बाद बात करनी चाहिए या नहीं वगैरह वगैरह ....क्या बकवास है ! अब हम हिंसाओं को इस नज़रिए से देखेंगे....यकीन मानिए यौन हिंसा के अनुभव कह पाना आसान नहीं होता और मुश्किल ये कि इनकी यादें कभी पीछा नहीं छोड़तीं बल्कि ये पूरे व्यक्तित्व पर बीमार कर देने की हद तक असर डालती हैं  

आप किसी भी लड़की या बच्ची से बात करके देखिये हमारे समाज में हाल ये है कि हर लड़की की अपनी तमाम कहानियां निकल आएँगी...आज आप अपना चेहरा देखकर ही बेचैन हैं...कुछ मामलों में आप कह रहे हैं सॉरी हम समझ नहीं पाए, हमसे चूक हुई...जिस बात या घटना या अनुभव को आप एक सॉरी से बैलेंस करने की कोशिश करते हैं आपके ख़याल में ही  नहीं कि उसका असर क्या हुआ था...

मेरी याद्दाश्त बेहद बेहद कमज़ोर है...मेरे सभी साथी ये बात जानते हैं...बावजूद इसके मुझे अपनी ज़िन्दगी में अलग अलग उम्र व जगहों पर घटी वो सारी घटनाएं याद हैं...और जब वो याद आती हैं, मैं नहीं समझ पाती कि उस स्थिति को कैसे सम्भालूँ...जी हाँ मैं, 36 साल की पढ़ी लिखी कामकाजी लड़की....वीमेन्स स्टडीज पढ़ी हुई, 10-12 साल से NGO के ही क्षेत्र में काम करने वाली, बराबरी के मुद्दे पर पढ़ने लिखने बोलने वाली...जब भी कोई मुझसे ये कहता है कि मैं बहुत मज़बूत हूँ मुझे अपने आप में ये बात बेहद हास्यास्पद मालूम देने लगती है क्योंकि उन परछाइयों से ख़ुद को बाहर मैं अब तक नहीं निकाल सकी, बस संघर्ष कर रही हूँ...हाँ ये कोशिश ज़रूर रहती है कि और किसी के साथ ऐसी घटना न हो इसके लिए अगर कुछ कर सकूँ तो ज़रूर करूँ....

मेरी कमज़ोर याद्दाश्त के चलते मुझे ये याद नहीं कि उस वक़्त मेरी उम्र क्या थी, मैं छोटी थी क्योंकि पुराने लखनऊ के उस घर को जब मेरे परिवार ने छोड़ा तब मैं कक्षा 6 में थी....उससे पहले के समय में जबकि मुझे ये तक याद नहीं कि मैं स्कूल जाती थी या नहीं, जाती थी तो कहाँ, किस क्लास में...मुझे याद हैं आस पास के वो सब ‘भैया’ लोग जो कभी किसी घर की छत पर तो कभी मम्मी के घर पर न होने के वक़्त बारी बारी से अपनी इच्छाएं पूरी करते थे..वो तय करते थे कौन किसके साथ जाएगा...काम पूरा होने पर पुचकार के कान में कहते ‘किसी से कुछ कहना नहीं’...मुझे और कुछ भी नहीं याद पर इतना बहुत बहुत अच्छी तरह आज भी याद है कि बहुत दर्द होता था... ये इस तरह याद है मानो कल की बात हो...ये हमारे अड़ोस पड़ोस के सभ्य संस्कारी घरों और पारिवारिक मित्रों के घरों के वो भैया लोग थे जिनके भरोसे हमारे अभिभावक हमें बेझिझक छोड़ जाते थे...भरोसा था कि इनके साथ हम सुरक्षित हैं...

मेरा परिवार ऐसा था जहाँ अनुशासन का मतलब डर और दहशत था...मैं बचपन के उन अनुभवों के चलते बेहद दब्बू, डरपोक, अंतर्मुखी होती चली गयी...मेरा दिमाग़ मानो मकड़जाल की तरह उलझा हो, एक अजीब भावना या कुंठा से भरा...परिवार की चिंताएं स्कूल में अच्छे नंबर लाने से जुड़ी थीं क्योंकि ये तय हुआ था कि मुझे डॉक्टर बनाया जायेगा...ये बात कभी भी अपने परिवार में साझा नहीं कर सकी..मैं किससे कहती और क्या कहती...ये तो ‘गन्दी बात’ थी...मम्मी ने कहीं सुना तो वो कितना मारेंगी...ये वो स्थितियां थीं जब किसी का भी स्पर्श असहज करने लगे...पिता का भी और भाई का भी...समझ ही न आये कि रिश्तों के असलियत में क्या मायने हैं...क्योंकि वो सब भी तो भैया लोग ही थे...माँ अक्सर ननिहाल जाती थीं तो पापा स्कूल की छुट्टी के बाद हमें अपने दफ़्तर ही ले जाते...शिक्षा विभाग में छात्र कल्याण निधि देखते थे जहाँ से छात्र छात्राओं को छात्रवृत्ति मिलती थी....मुझे नहीं पता कि उस दिन पापा के ऑफिस में आया वो युवक बार बार मेरी ट्यूनिक के अन्दर क्यों हाथ डाल रहा था...मेरे पिता उसे शायद फॉर्म भरने की सही विधि या दस्तावेज़ लगाने की जानकारी दे रहे थे...जी हाँ मेरे पिता वहीं थे...और इस युवक का हाथ बार बार नीचे से मेरी ट्यूनिक के भीतर जाता हुआ ऊपर को बढ़ने लगता....ये ग़लत है...गन्दी बात...मैं डरती और उधर से हटकर दूसरी तरफ़ खड़ी हो जाती...वो फॉर्म को और ठीक से देखने के बहाने फिर मेरे बगल आ जाता....न मैं चिल्ला सकी, न मैं अपने पिता को बता सकी और न ही बाद में घर पर ही किसी से कह सकी...यक़ीन मानिए मुझे उस वक़्त की उम्र भी नहीं याद बस इतना याद है की प्राइमरी स्कूल जाती थी...इन लोगों की हिम्मत को समझने की कोशिश करते चलिए....अभी तक और बाद में भी किसी आपराधिक रिकॉर्ड वाले व्यक्ति ने ही ऐसा किया हो, ऐसा कभी नहीं रहा    

नए घर के अड़ोस पड़ोस के कुछ भैया लोग हों या ननिहाल के गांव के वो लोग या रिश्तेदार...उन्हें खेलती, पढ़ती, खाती, सोती, रोती लड़की या बच्ची बस एक ही तरह दिखती थी...वो उसके शरीर के अलग अलग हिस्सों तक पहुँचना चाहते थे...ये वो लोग थे जिन्हें सम्मान भी देना होता था...देना ही था क्योंकि घर पर ये ही सिखाया गया था ये भैया हैं, ये मामा हैं, ये अंकल हैं...दुनिया के आगे वे ख़ासे शरीफ़ सज्जन संस्कारी थे भी....बल्कि कई बार तो इनमें वो लोग भी थे जिनकी बाहर ज़ुबान तक नहीं खुलती थी...अक्लमंद से लेकर बेवकूफ़ कहे जाने वाले तक सब ही थे...असर और गंभीर होना था...इन सब के पीछे जो कुछ घट रहा था कहीं शायद मन उसके साथ एडजस्ट होने लगा था कि शायद ऐसा ही होता है...क्योंकि ये तो बचपन की मेरी उन सहेलियों के साथ भी हो रहा था और उनके भाई को सब पता भी था...तो शरीर ने प्रतिकार करना बंद कर दिया...ऐसी स्थितियों में ज़ुबान पाताल लोक चली जाती...इसके आगे अगली बात ये कि आत्मग्लानि से ख़ुद का ही मन भरने लगा कि सब मेरी गलती है....क्योंकि अगर मेरी ग़लती नहीं होती तो घर में मार पड़ने का डर भी न होता...इन स्थितियों ने कक्षा 7 तक आते आते लड़कों या पुरुषों के प्रति मेरे व्यवहार को बेहिसाब उलझा दिया था...ये सामान्य तो कतई नहीं था और उसे सामान्य करने वाला/ वाली मेरे इर्द गिर्द भी कोई नहीं था/ थी

‘यक़ीन’ बेहद ज़रूरी शै है...मुझे ये यक़ीन होना कि मुझे सुना जायेगा, मेरी बातों पर यक़ीन किया जाएगा...ये यक़ीन बहुत कुछ होने से रोक सकता था...पर यक़ीन की जगह डर था कि मेरी बात कौन मानेगा, कहूंगी तो जाने कैसी प्रतिक्रिया होगी, मार पड़ेगी...किसी भी पारंपरिक परिवार की तरह को-एड में पढ़ने के बावजूद लड़कों से दोस्ती की इजाज़त नहीं थी, लड़कियों से भी अधिक दोस्ती पसंद न की जाती...घर के अनुशासन वैसे ही थे, मैं बच्ची से किशोरी बनने की ओर थी लेकिन पढ़ाई में पिछड़ रही थी..उन बातों का ज़िक्र पहले कहीं और कर चुकी हूँ...नंबर लाने के दबाव यथावत थे...मैं रिश्तेदारी या अड़ोस पड़ोस के उन ‘सम्मानित’ लोगों द्वारा दिए जा रहे अनुभवों से जब मचल जाती तो अकेले में रोती, कई बार पूजा में रखी तस्वीरों के सामने बैठ कर...यहाँ उन सब का तो ज़िक्र ही नहीं है कि कब किसने फब्तियाँ कसीं, अश्लील इशारे किये...यहाँ जो हैं वो भी कुछ ही घटनाएं हैं

कक्षा 9 में मेरी तबियत बिगड़ी...झटके से लगने लगे.. लोगों को लगा मिर्गी के दौरे हैं, परिवार को लगा किसी को पता न चले...जब भी अति उत्साहित होती, नर्वस होती, डरती, जल्दबाज़ी में होती तो ऐसा होता...हाथ का सामान छूट जाता...मैं खड़ी होती तो गिर जाती, हाथ पैर ठन्डे हो जाते, ऐसा तब तक होता रहता जब तक सब छोड़ छाड़ कर रिलैक्स न हो जाती...वो क्या था ये कोई नहीं जान पाया क्योंकि किसी चिकित्सकीय रिपोर्ट में कभी कुछ नहीं निकला...शायद इसी वजह से माँ को लगता कि कुछ हवा बयार है और वे उसके इलाज चालू रखतीं...एक बार एक डॉक्टर ने इतना ज़रूर कहा कि इसका ब्लड प्रेशर अचानक से गिर जाता है....हाँ मुझे नींद की दवाइयां सभी डॉक्टरों ने खूब खिलायीं लगभग 13-14 साल...इतनी कि मैं उनकी आदी हो गयी और बाद में उनसे पीछा छुड़वाने के लिए अलग इलाज कराना पड़ा...शुरूआती समय में एक साल दवाइयों की ज़रुरत नहीं पड़ी थी... एक युवा डॉक्टर जो अपनी पढ़ाई कर रहे थे वो हफ़्ते में एक दिन बुलाकर मुझसे बात करते...यूँ ही इधर उधर की...और मैं साल भर ठीक रही...आज जानती हूँ कि इसे काउंसलिंग कहते हैं...उस कॉउंसलिंग की अहमियत अब समझती हूँ कि कोई एक शख़्स था जो प्यार से मुझसे मेरी रुचियाँ पूछता, क्या अच्छा लगता है क्या बुरा, क्या तकलीफ़ होती है, कब ज़्यादा होती है और जो मैं बताती उस पर यक़ीन करता...क्या पता मेरी इस बीमारी या तकलीफ़ के पीछे मेरे बचपन के बीते अनुभवों की भी कोई भूमिका रही हो  

ये अजीब स्थितयाँ थीं कि पुरुषों के प्रति भय भी था और वहीं स्कूल में दोस्त भी बन रहे थे...कहीं आकर्षण भी था, उलझनें भी थीं, बस रास्ता दिखाने वाला कोई नहीं था...सब कुछ किसी न किसी तरह साथ साथ चल रहा था...मैं बड़ी हो रही थी लेकिन न ज़ुबान खुल रही थी न स्थितियाँ बदल रही थीं, बस लोग बदल रहे थे...ये वो बातें थीं जो सहेलियों से भी साझा नहीं हो रही थी...मुझे नहीं याद कि क्या मुझे ऐसा लगता था कि ये तो सबके साथ होता है...इन सालों में एक बात और हुई...मुझमें दूसरों की संवेदना पाने की आदत बनने लगी...अपनी बीमारी की बातें करना, उसे पढ़ाई में पिछड़ने का बहाना बताना... शायद ये इसलिए था क्योंकि जो बात कहनी थी उसे कहने के तो कोई रास्ते थे नहीं, दुनिया मुझे ऐसी लड़की के तौर पर न देखे जो पढ़ने में या किसी भी काम में अच्छी नहीं है...मैं सबकी जैसी लगूं, स्वीकार्यता पाऊं, पसंद की जाऊं...इसके लिए ज़रूरी है कि मैं उन्हें बताऊँ कि मैं ऐसी क्यों हूँ पर सारी बातें तो बता नहीं सकती तो वो बताया जाये जो सबसे आसान है...

वो ऑटो, बस या ट्रेन में बैठे सहयात्री हों, क्लिनिक में बैठे डॉक्टर या मंदिर के पुजारी...मेरी आवाज़ बहुत बाद तक भी नहीं खुली...और उनके हाथ बहुत आसानी से मुझ तक पहुंचते रहे...मैं नहीं समझ पायी कि दिल्ली में उस क्लिनिक के बुज़ुर्ग डॉक्टर या नीमसार के उस मंदिर के पुजारी ने मेरे कपड़ों के भीतर हाथ क्यों डाला....तब तक मैं बीए में पहुँच चुकी थी...अब तक मेरे भीतर आत्मग्लानि के साथ साथ दुख और ख़ुद के प्रति ग़ुस्से ने जगह बना ली...वहीं मेरे परिवार को मैं बहुत 'तेज़' लगती थी...ये अजीब था क्योंकि मैं ये भी चाहने लगी थी कि मुझपर ध्यान दिया जाए और मैं ये भी चाहती थी कि सब दूर रहें, मुझे छुएँ न....मुझे हर पुरुष का स्पर्श एक सा लगता....पाठ पूजा वाला मेरा परिवार जिन गुरु जी के यहाँ मेरे जाने और उनके द्वारा मुझे लाड़ किये जाने पर ख़ुश होता... जिस दिन उन्होंने इस तरह की कोशिशें कीं मेरे पैरों तले ज़मीन खिसक गयी....किससे कहूँ...क्या कहूँ ये तो भगवान की तरह पूजे जाते हैं...इनके सामने तो मैं बड़ी हुई हूँ...मैं ख़ुद परेशान होने पर इनसे अपना मन हल्का करती थी...कैसे बताऊँ कि ये इस कदर गिरे हुए हैं, कौन यक़ीन करेगा...मैं एमए में थी और तब भी कुछ नहीं कह सकी...कुछ दिक्कतों से जूझते मेरे परिवार को लगता कि वे समाधान बता सकेंगे और मुझे बार बार वहां भेजा जाता...उनके लाड़ को देखते हुए मुझे अकेले ही भेज दिया जाता...ईमानदारी से कहूँ तो ज़िन्दगी में पहली बार किसी के लिए दिल से बद्दुआ निकली थी...कुछ सालों बाद रोते हुए फ़ोन पर भाई ने जब उनकी मौत की ख़बर दी तो मैं एक अजीब ख़ुशी और राहत से भर गयी थी...

आप कह सकते हैं कि क्यों नहीं कहा, बड़े होने पर कैसे चुप रह गयी, तुम्हारी ही ग़लती है...आप बेशक कह सकते हैं और मुमकिन है मैं समझा ही न सकूँ कि मेरे अन्दर की बच्ची एक डरपोक युवती किस तरह बन गयी...ये सच है कि आज मुखर हूँ पर ऐसा नहीं कि घटनाएँ बाद में हुई नहीं...एक घटना तो कुछ साल पहले ही हुई जिसको जब मैंने अपनी दोस्तों को बताया तो उन में से एक ने मुझे जमकर फटकार लगाई और कहा तुम्हारी ही ग़लती है तुमने उसी वक़्त प्रतिक्रिया क्यों नहीं दी...मैं क्यों जड़ हो गयी थी इस बात का जवाब मेरे पास नहीं था...

इन सबका कोई एक नुकसान या कुछ एक समयावधि का नुकसान नहीं होता...मैं आज भी देर रात जागती हूँ...एक स्वस्थ नींद बमुश्किल आती है...जागना मेरे लिए थकन भरा हो सकता है लेकिन सोना एक अजीब असहजता भरा...मेरे आस पास कोई एक घटना भी पता चलने पर मेरी ज़िन्दगी के अनुभवों का फ्लैशबैक मुझे कितनी देर कितने दिनों तक परेशान रखता है...

मैं एक सामान्य व्यक्ति के तौर पर नहीं पल बढ़ सकी...मेरे व्यवहार सामान्य नहीं बन सके...किसे ज़िम्मेदारी दूं...परिवार, समाज, रिश्तेदार, या ख़ुद को...मेरे व्यक्तित्व पर आज भी मेरे कल का असर है...मैं किसी पर भी भरोसा नहीं कर पाती...किसी भी पुरुष पर नहीं...हर पल ख़ुद को ये बताने के बावजूद कि ‘नहीं सब एक से नहीं होते’...मुझे किसी के स्पर्श के ख़याल से भी असहजता होने लगती है क्योंकि ‘प्रेम’ की कल्पना मेरे जीवन में जिस उम्र से आई और जिस तरह आई और बाद तक आती रही उनमें बहुत अधिक अंतर रहा हो ऐसा नहीं था, सब मेरे शरीर के इर्द गिर्द था...एक ऐसा भी समय आया था जब अपने ही शरीर से नफ़रत सी होने लगी थी...मुझे किसी व्यक्ति पर यक़ीन नहीं आता जब वो मुझे ये बताता है कि उसे मुझसे प्रेम है...मैं न सिर्फ़ व्यक्तियों बल्कि प्रेम की पुरज़ोर समर्थक होने के बावजूद भी प्रेम पर विश्वास नहीं कर पाती हूँ...और संबंधों में रहने पर शायद मेरे व्यवहार सामान्य होते भी नहीं...शायद कभी नहीं रहे...एक शोर है जो पीछा नहीं छोड़ता...सामने वाले को लगता है कि मैं उसे नहीं समझ रही...मैं बताने की कोशिश करती हूँ पर फिर लगता है कि कोई बात नहीं जाने दो इससे ज्यादा क्या समझूं क्या समझाऊं

कार्यस्थल पर आमतौर पर मैं खडूस हो उठती हूँ...मुझे ये बहुत आसान लगता है...दोस्ती करने की छूट देने पर कोई मौके तलाशे से बेहतर है वो मुझे खडूस समझे, पीठ पीछे बुराई करे पर सामने अपनी हद में रहे...ये एक कारण है कि मेरे दोस्तों की संख्या बहुत बहुत सीमित है...हाँ ये अलग बात है कि इक्का दुक्का दोस्ती पर प्रोत्साहन मिला हो ऐसा नहीं...ये बेहद मुश्किल है और स्वस्थ भी नहीं कि आप आज के समय में कार्यस्थल पर अलग अलग खांचों में रहें

ये सच है कि मैं विवाह, गर्भधारण या प्रसव की प्रक्रिया में नहीं जाना चाहती लेकिन ये भी सच है कि मैं एक बच्चा गोद लेना चाहती हूँ...पर मैं इस ख़याल भर से सिहर उठती हूँ कि मैं हर पल उसकी सुरक्षा किस तरह कर पाऊँगी...कैसे हर वक़्त निगरानी करूंगी कि यदि वो बच्ची हो तो ऐसे किसी अनुभव से न गुज़रे जिनसे मैं गुजरी...और यदि वो बेटा हो तो घर के बाहर उस पर समाज का ये चेहरा अपना असर न छोड़ दे...हर वक़्त कैसे साथ रह सकूँगी कि कहीं ये बच्चे शोषित या शोषक न बन जाएं...बचपन में तो लड़के भी यौन शोषण के ख़ासे शिकार होते हैं...और ये सब करते हुए मैं कहीं हर बात में दखलंदाज़ी करने वाली माँ न बन जाऊं...जो अपने जीवन में किसी पुरुष पर यक़ीन नहीं कर सकती वो क्यों कर अपनी बेटी या बेटे को लेकर ओवर प्रोटेक्टिव नहीं होगी...कैसी बुरी अभिभावक बनूंगी मैं...सोना (मेरी भांजी) को लेकर ऐसे भय से हमेशा घिरी रहती...ये देखकर सुकून होता है कि वो अपनी हर छोटी बड़ी बात साझा करती है, डरती नहीं और आज उसमें और दीदी में या उसमें और मुझमें वैसे सम्बन्ध नहीं जैसे मेरे अपने अभिभावकों से रहे...मेरी इर्द गिर्द की दुनिया, संस्थानों व एक समाज के तौर पर ये आपकी विफलता है

मेरे स्वास्थय के अलग मसले हैं....जिसमें एक बड़ा हिस्सा मानसिक स्वास्थय से जुड़ता है...किसे क्या कहूँ ...मेरे सुंदर से दिखने वाले परिवार में बड़े होने पर मैं सबके नज़दीक थी पर सब मुझसे दूर थे...ये दूरियां कभी कम नहीं हुईं बस उनसे लड़ना, उनका सामना करना, नज़रंदाज़ करना आता चला गया...

सहमति...ये एक बड़ी बात है वयस्क संबंधों में...और ये ही सही स्थिति पर अपने यहाँ इसके खेल भी कम नहीं...पहली बात तो ये कि आमतौर पर हमारे यहाँ संबंधों की जो छवियाँ गढ़ी जाती हैं उनमें लड़की समर्पण की मुद्रा में ही होती है...वो न इच्छा ज़ाहिर कर सकती है न ही साथी द्वारा इच्छा ज़ाहिर किये जाने पर इन्कार...उसे उस क्रिया में उस समय ठीक उसी तरह रूचि लेनी चाहिए जैसा उसका साथी ले रहा है...इन स्थितियों में उसे ये चुटकी बजाते समझ आ जाये कि ये प्रेम नहीं है, ऐसा होना भी मुश्किल है क्योंकि उस तक यूँ ही नहीं पहुंचा जाता पहले उसका भरोसा जीता जाता है...कहीं कोई चेकलिस्ट जैसा नहीं होता...कई जगहों पर स्थितियाँ भिन्न हैं ये भी सच है...पर हाँ सहमति से बने संबंधों के अच्छे या बुरे अनुभव और यौन हिंसा भिन्न बातें  हैं...और सही मायनों में सहमति से बने सम्बन्ध ही सही हैं...

मैंने बचपन से लेकर आज तक कभी किसी को कोई सिग्नल नहीं दिया पर लम्बे समय तक मुंह भी बंद ही रखा...जानती हूँ कुछ लोगों को ये लड़कियों की ग़लतियाँ लगती हैं बल्कि कई बार करियर में आगे बढ़ने की सीढ़ियां भी...मैं ऐसे लोगों के प्रति कतई जवाबदेह नहीं...जवाबदेह तो ये सारी संस्थाएं व लोग हैं....मुझे कुछ अपनों का साथ न मिलता तो मेरी ज़िन्दगी जहन्नुम ही रहती...आज उससे कुछ बेहतर है....कुछ ही...मैं हर उस लड़की और औरत की बात समझ पाती हूँ और अब भी समझ पा रही हूँ जो अपनी तकलीफ़ें अपने अनुभव साझा करती हैं...मैं उनमें शामिल रही हूँ...मैंने अपनी ज़िन्दगी में हर जगह इन बातों को झेला है और मैं समझ सकती हूँ कि तुम नहीं बोल पायी...और यक़ीन मानो तुम नहीं बोल पायी तो ये कोई ग़लती नहीं थी...तुम आज कह रही हो ये भी कोई ग़लती नहीं बल्कि हिम्मत की बात है...हम में से कितनी ही लड़कियां ये सब पढ़ते सुनते वक़्त मन ही मन कहती हैं कि हाँ ऐसा मेरे साथ भी तो हुआ था...पर खुलकर आज भी नहीं कह पातीं...ज़िन्दगी में कभी कहीं घटी एक घटना पूरा व्यक्तित्व बदल देती है...अपने शोषण की ये बातें याद करना और साझा करना कोई अच्छा अनुभव नहीं होता...ये तकलीफ़ के उस दौर से दोबारा गुज़रने जैसा होता है...यहाँ बात आपकी संवेदना बटोरने, ख़ुद की तारीफ़ करवाने, टीआरपी बटोरने की नहीं है...ये सच बयान करने की बात है...इसलिए इनकी सुनिए...इसे ‘बहाना’, ‘फैशन’, ‘भेड़चाल’, 'बदला लेना', या ‘लोकप्रियता बटोरने के सस्ते हथकंडे’ मत समझिये...लड़कियों को यदि भरोसा रहे कि उनपर यक़ीन किया जायेगा तो स्थितियां इतनी न बिगड़ें…’ग़लत इस्तेमाल’ की बात करने से पहले उसका प्रतिशत देखिए और हर जगह हर नियम कानून में देखिए...कई जगहों पर कार्यवाही भी हुई हैं...इन जगहों को बधाई...कार्यस्थल को सुरक्षित व सहज बनाने जैसी ज़िम्मेदारी से बचा नहीं जा सकता

मेरे पास किसी भी पुरुष पर भरोसा करने की कोई वजह नहीं....सिवाय इस तर्क के कि सब एक से नहीं होते....ये अलग बात है कि ईमानदारी से कहूँ तो व्यवहारिक तौर पर ये तर्क कारगर नहीं होता...दिल्ली के कनॉट प्लेस में विदा लेते हुए जब उस मित्र ने मुझे गले लगाया था तो मैं लगातार मन ही मन ख़ुद से कह रही थी ‘कोई बात नहीं, कोई बात नहीं ये बुरे व्यक्ति नहीं हैं’...ये सामान्य कतई नहीं है...मुझे दुनिया के तमाम सुंदर अनुभवों से मेरे बीते अनुभवों ने दूर किया है...प्रेम की वकालत करने के बावजूद मेरा भरोसा प्रेम पर नहीं क्योंकि व्यक्तियों पर नहीं....मेरी सहजता मेरी महिला मित्रों या बमुश्किल एक या दो पुरुष मित्रों तक सीमित है...मेरे पास न वो माहौल था, न लोग और न ही हिम्मत कि मैं कह पाती...ये सब दोहराना कम तकलीफ़देह नहीं है और अब इस बात से कोई फ़र्क भी नहीं पड़ता कि आप यक़ीन करते हैं या नहीं...आज के समय में मैं उससे ऊपर उठ गयी हूँ...कम से कम झिझक तो नहीं होती...आत्मग्लानि, ख़ुद पर ग़ुस्से जैसे ख़याल नहीं आते कि आत्महत्या का जी कर उठे...कोई सर्टिफ़िकेट भी नहीं चाहिये...ये सब कहते हुए मैं ये भी जानती हूँ कि सामान्य व्यवहार और शोषण में कहाँ रेखा खिंची है...आज मैं बोलती हूँ और मेरे बोलने से बहुत लोगों को दिक़्क़तें हैं, अपनों को भी….मुझे चुप कराने के प्रयास भी हर तरह से किये जाते हैं...ये भी सच है कि मेरे जीवन पर नियंत्रण करने की कोशिशें भी की जाती हैं….पर मैं आज हर उस महिला के साथ हूँ जो बोलने की हिम्मत कर रही है...ये मेरी ज़िम्मेदारी भी है....आपके लिए शायद ये समझना मुश्किल हो कि ऐसे साथ से किस तरह हिम्मत मिलती है...हम इस शोर के साए में क्यों जियें....रिश्तों, दोस्तियों, सहकर्मियों, अध्यापकों या किसी भी अन्य संबंधों की आड़ में या अजनबी बनकर भी देखिये कि आप कर क्या रहे हैं....और गर आइना है तो भला क्यों न दिखाया जाये....बात ये है कि आप अपना ही चेहरा नहीं देख पा रहे         

        

                    

   

गुरुवार, 24 मई 2018

बाज़ारवाद से तय होती दैहिक स्वतंत्रता और नारीवाद


“अरे यार मैं न सिगरेट के बिना दारू पी नहीं पाती”, ये कहते हुए मुक्ता (बदला हुआ नाम) ने एक लम्बा कश खींचा और देर रात पब की जगमगाती शोर भरी रौशनी में उसे आज़ाद कर दिया....मुक्ता से कई सालों से जान पहचान है...वो एक छोटे ज़िले के परम्परागत परिवार से थी....जहाँ पहनने ओढ़ने के तरीके अब भी पुराने ही थे...मुक्ता पढ़ी लिखी थी और लखनऊ शहर में नौकरी कर रही थी...यहाँ भी उसके पहनावे में कोई बदलाव नहीं आया हालाँकि उसके दफ़्तर की सहेलियां इसपर उसे जब तब सलाह देतीं....वो संकुचित मानसिकता की नहीं थी लेकिन वो ऐसी समझ या जानकारी रखती हो कि तरक्कीपसंद कह दिया जाए तो ऐसा भी नहीं था...काम भर का सब ठीक था...

कुछ सालों बाद उसे एक बेहतर कंपनी में एक बड़े शहर में नौकरी मिल गयी और वो चली गयी...इस शहर और इसके माहौल का सबसे बड़ा और पहला असर उसके बाहरी व्यक्तित्व पर पड़ा...मैं तस्वीरें देखती तो ये सोचकर बहुत ख़ुश होती कि ये इस तरह के कपड़े पहनना चाहती थी पर इसे तब माहौल नहीं मिला और अब ये अपनी मर्ज़ी से जी पा रही है इससे अच्छा भला क्या....बंद गले के सूट में रहने वाली लड़की अब अमूमन ऑफ शोल्डर शॉर्ट ड्रेसेज़ में ही दिखती...देश विदेश या पार्टी पब की तस्वीरें सोशल मीडिया में शाया होती रहतीं...मुद्दे उसकी बातों से पहले भी गायब थे और अब भी....हाँ अगर हम लोग उसपर बात करें तो उसका समर्थन ज़रूर रहता लेकिन उसकी अपनी तरफ़ से कुछ कहने की कोशिशें नहीं दिखतीं...पर देर रात पार्टी, डिस्को, शराब, सिगरेट, छोटे फैशनेबल कपड़े अब आदत का हिस्सा थे...उसकी बातों का खुलापन भी अमूमन इनके और सेक्स से जुड़ी बातों के इर्द गिर्द ही था....व्यवहार में अब वो ख़ासी तंगदिल, मतलबी और स्वार्थी हो चुकी थी...पर यदा कदा जब ज़रा मिले तो वो एक अजीब किस्म के दबाव में लगती...सुंदर दिखना, “हॉट, सेक्सी और डिज़ाइरेबल” लगना, देखने में कहीं से भी पिछड़ा न लगना बल्कि अति आधुनिक लगना, बातों में संकुचित न लगना, उसके ये सब चयन अपने लिए हों ऐसा नहीं था....उसने इसे एक दबाव के तहत अपनाया था ताकि वो इस बड़े शहर की भीड़ में शामिल हो सके, उस पर एक छोटे शहर या कसबे की लड़की होने का टैग न लगे और फिर इसे ही उसने अपना शौक और आदत बना लिया...आस पास के लोगों के इस दबाव को हम “पीयर ग्रुप प्रेशर” भी कहते हैं...अफ़सोस ये था कि विचारों, समझ और व्यवहार में वो तरक्की नहीं आ सकी थी                
  
अब इन दिनों फिर से एक अजीब उलझन सी है...शायद मैं ही नहीं समझ पा रही या जाने क्या बात है...कुछ दिन के लिए सोशल मीडिया पर वापसी हुई...वहां का शोर, नफ़रत, क्रान्ति और नारीवाद के अंदाज़...सब कुछ कुछ यूँ था कि दिल घबराने लगा और वापस सब बंद कर दिया... वहां की बातें और चर्चाएँ देख मुक्ता अक्सर याद आ जाती... पर एक मुश्किल ये भी है कि उलझन जब तक ज़ाहिर नहीं हो जाती तो चैन भी नहीं आता...इसलिए उसे अब यहाँ उतार रही हूँ...

अव्वल तो मेरा ये मानना है कि नारीवाद का कोई ख़ास प्रकार नहीं...कोई एक परिभाषा नहीं..ये जगह, समय, ज़रुरत के हिसाब से बदलता रहा है...उदाहरण के लिए शायद हिन्दुस्तान में ज्यादा बड़ी ज़रूरत दहेज या घरेलू हिंसा पर काम करने की हो और किसी और देश में फोकस तनख्वाह में गैरबराबरी हो. दूसरी बात और वो भी मेरी निजी राय है कि नारीवाद की बात सिर्फ़ और सिर्फ़ अनुभव आधारित नहीं होनी चाहिए...महिला आंदोलनों, नारीवादियों के संघर्षों और नारीवाद की तमाम परिभाषाओं और प्रकारों को पढ़ा जाना चाहिए, समझना चाहिए..अनुभव और एकेडेमिक (जिसका अर्थ सिर्फ़ कोर्स कर लेना भर नहीं) का साथ होना बहुत ज़रूरी है | तीसरी बात ये कि मेरी समझ से आज के समय में नारीवाद सिर्फ़ महिला अधिकारों या महिला पुरुष बराबरी की बात नहीं कर रहा...बल्कि नारीवादियों की एक बड़ी संख्या पहले से ही egalitarian समाज की बात करती रही है...तो आज भी बात सिर्फ़ महिला पुरुष की नहीं बल्कि एक बड़े अर्थ में बराबरी की है...लेकिन इस बराबरी को समझा जाना भी बहुत ज़रूरी है|

स्वघोषित नारीवादी या क्रांतिकारी होने का चलन है...यदि व्यापक अर्थों में इसके साथ ऐसे काम किये जा रहे हैं जिनका प्रभाव सकारात्मक है तो मुझे किसी के स्वघोषित होने में कोई दिक्क़त भी नहीं | लेकिन मसले कुछ और हैं और मुझे लगता है की बराबरी की परिभाषाओं में आगे बढ़ते हुए हम न सिर्फ़ भटक रहे हैं बल्कि ख़ुद को देह तक सीमित करते जा रहे हैं | कुछ उदाहरणों के ज़रिये देखते हैं:

सुन्दरता, रंग, डील डौल का दबाव और बाज़ार दोनों बहुत बड़ा है...इतना कि इससे पुरुष भी पूरी तरह आज़ाद नहीं...लेकिन commodification आम तौर पर महिलाओं का ही होता है..पुरुष खरीददार की भूमिका में है...ऐसे में हमारे बीच अभियान आते हैं जो इन दबावों पर सवाल उठाते हैं और इन्हें तोड़ने की कोशिश करते हैं...बड़े स्तर पर गोरा करने की मानसिकता के ख़िलाफ़ अभियान चलते हैं...ये न सिर्फ़ ज़रूरी हैं बल्कि प्रशंसनीय भी हैं...व्यक्तिगत अभियानों से लेकर संस्थानों तक में इनके बारे में लिखा जाता है कहा जाता है

महिला स्वास्थय, किशोरी स्वास्थय, माहवारी से जुड़ी जानकारियाँ साझा होती हैं कि किस तरह किशोरियों और महिलाओं का स्वास्थय सही जानकारी व संसाधनों के अभाव के कारण ताक पर रखा हुआ है...जानकारियों के सही स्रोत हैं नहीं और ग़लत जानकारियाँ नुक्सान ही पहुंचाती हैं साथ ही टैबू भी मज़बूत करती चलती हैं...इस तरह की तमाम बातों के चलते ये कोशिशें बहुत ज़रूरी हैं क्योंकि इनका असर सिर्फ़ शारीरिक स्वास्थय तक सीमित नहीं

यौनिक स्वास्थय पर चर्चाएँ शुरू हुईं...एक बड़ी संख्या में युवा जानकारी के अभाव में यौन संक्रमण का शिकार है...कई बार पुरुष साथी महिला साथियों के प्रति असंवेदनशील हो जाते हैं जिसके परिणाम न सिर्फ़ स्वास्थय की दृष्टि से घातक हैं बल्कि वे अनैतिक और अमानवीय भी होते हैं...कभी कभी ऐसा जानकारी के अभाव में होता है और कई बार ये पितृसत्तात्मक परवरिश का नतीजा होता है... इन पर बातें हुईं, सवाल उठे, ये बढ़िया बात हुई

बात चयन के अधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, निजी ज़िन्दगी से जुड़े फैसले लेने की हुईं और जोर शोर से हुईं....ऐसी मुखर अभिव्यक्तियाँ देखना सुखद था और ये कहना ज़रूरी है कि इन बातों में पुरुषों की खूब भागीदारी रही...मैं इसे अब सिर्फ़ महिला मुद्दे कहना पसंद नहीं करती क्योंकि मेरे लिए ये बराबरी और मानवाधिकारों के मुद्दे हैं जो स्त्रियों तक सीमित नहीं  

बात शरीर से जुड़ी सहजता व हक़ की हुई और यहाँ बराबरी, यौनिक और चयन के अधिकार के साथ मिलकर कुछ घालमेल सा होने लगा...उदाहरण के लिए अगर देखें तो मुझे अपने शरीर के प्रति सहज होना चाहिए, उसकी बनावट या रंग के प्रति शर्म या हीनता का भाव नहीं होना चाहिए...मुझे उन कपड़ों को चुनने का अधिकार होना चाहिए जिनमें मैं सहज महसूस करूं...अर्थात सुन्दरता के ‘मापदंडों’ या ‘दबावों’ से मुझे आज़ादी चाहिए...लेकिन लेकिन लेकिन...पहली बात तो बराबरी या नारीवाद के आन्दोलन का ये एक पक्ष है और दूसरी बात हम महिला सिर्फ़ शरीर के यौनिक अंगों के बारे में बात करके या उन्हें दिखाकर कौन सी बराबरी की कोशिश कर रहे हैं...इससे कौन सा सशक्तिकरण हो रहा है...यदि उसी भाषा में कहें तो ब्रा न पहनने, निपल्स दिखने, प्यूबिक हेयर न शेव करने या अनशेव्ड अंडरआर्म्स दिखाकर आने वाली बराबरी समझ नहीं आ रही थी | मुश्किल ये थी कि इसके ज़रिये हासिल किया जाने वाला उद्देश्य स्पष्ट नहीं था...कम करते करते क्या बिना कपड़ों के बाहर निकल जाने से बराबरी आ जाएगी...यौनिकता का मुद्दा इस तरह सिमटा कि स्त्री अस्मिता भी देह तक सीमित होती गयी जबकि जो बात कही जा रही थी उसके हिसाब से ये सब इससे मुक्त होने की कोशिश थी...

मुझे कम कपड़ों में घूमने वाले या अनशेव्ड अंडरआर्म्स वाले पुरुष भी पसंद नहीं...पर ये उनका निजी मसला है सहजता- असहजता से जुड़ा...मैं इसके पीछे की बात को भी समझती हूँ कि पुरुषों के पास ये विकल्प है, उनके ऐसा करने पर उनके चरित्र पर सवाल नहीं है और यदि सिर्फ़ सहजता की दृष्टि से देखा जाये तो ये एक बड़ी सहूलियत और सशक्तिकरण है भी...लेकिन इसका अर्थ ये कतई नहीं हुआ कि बराबरी कपड़े त्यागने से ही आएगी...हाँ महिलाओं के लिए भी वो माहौल हो कि उन्हें उनके शरीर के प्रति इतना concious न कर दिया जाए कि उनका सारा ध्यान हर वक़्त अपने शरीर और उसके न दिखने पर हो...वे अपने शरीर के प्रति सहज हों...और उन्हें अपने कपड़े चुनने और अपने शरीर को अपनी तरह रखने की आज़ादी हो...पर क्या ज़रूरी है कि ये बातें उस तरह की जाएँ जिस तरह की जा रही हैं...ठीक बात है कि महिलाओं पर एक ख़ास किस्म की शारीरिक बनावट का दबाव नहीं होना चाहिए लेकिन ज़रूरी नहीं कि हर महिला के लिए सहजता असहजता की वही परिभाषा हो जो आपके लिए है...वो चाहे अंतः वस्त्रों के इस्तेमाल की बात हो या शरीर पर आ रहे रोयें की...कई लोगों के लिए जिनमें मैं भी शामिल हूँ ये बातें साफ़ सफ़ाई से जुड़ जाती हैं....और फिर इस आधुनिकतावाद के हिसाब ये यदि पुरुष अपने यौनिक अंगों की बातें करने लगे, उन्हें दिखाने लगे तो? तब भला वो अश्लील कैसे हो जाए? इन सब अर्थों में तो ‘कामसूत्र’ और खजुराहो की गुफाएं भी सशक्तिकरण के उदाहरण होने लगेंगे? इसका अंत नहीं, इसका कोई हासिल नहीं, इस विषय को जिस तरह इस्तेमाल किया जाना चाहिए ये उससे भटकने जैसा है...ऐसे में हमारी भाषा, व्यवहार, उदाहरण, तर्क, जानकारी और समझ इन सबका ध्यान से इस्तेमाल किया जाना बहुत ज़रूरी है

बाज़ार की भी चालाकियां समझिये...ये हर तरह की बातें करके सामान भी बेच रहा है और दबाव भी बना रहा है....यहाँ साड़ियाँ और जेवर भी बिक रहे हैं और सशक्तिकरण और आज़ादी को ढाल बनाकर क्रॉप टॉप और शॉर्ट्स भी...डियोड्रंट भी और बर्तन मांजने का साबुन भी....अपनी हेयर रिमूवल क्रीम, सेनेटरी पैड  से लेकर मर्दों के अंडरगारमेंट्स बेचने तक की ज़िम्मेदारी औरत की है जिसे वो करती जा रही है...वो रैंप पर चलती है, चयन के अधिकार का इस्तेमाल कर बिकनी में घूमती है...आपको वाकई लगता है वो सशक्त है? या ये आज़ादी एक नयी छुपी हुई गुलामी लेकर आई है जिसे हम समझ नहीं पा रहे....क्या इन तमाम लड़कियों और महिलाओं का उद्देश्य आकर्षक दिखना और पुरुषों को अपनी ओर आकर्षित करना नहीं? इस कामुकता की क्या भूमिका है? क्या ये महज़ सहजता के लिए है? या हम बदलते वक़्त के साथ पुरुषों की ज़रूरतों और उम्मीदों को मैच करने के लिए ख़ुद को अपग्रेड कर रहे हैं...नारीवादी और कट्टरपंथी दोनों ही फैशन शोज का विरोध करते हैं लेकिन बिल्कुल भिन्न कारणों से...क्या हम उन्हें समझ रहे हैं? क्या हम ये समझ रहे हैं कि रेडिकल नारीवाद अकेलेपन में बराबरी नहीं ला सका था...बात सम्पूर्णता में किये जाने वाले प्रयासों की है

तो जब बात सहजता की हो तो क्या ज़रूरी है कि हर व्यक्ति को उसी तरह सहज लगे जैसे हमें लगता है...लड़कियां सुंदर दिखने और ‘मार्केट में बिकने वाले सामान’ के दबावों से मुक्त हों पर इसके लिए ज़रूरी नहीं कि हम उन पर नए नियम लादें या ये सब उन तरीकों से ही संभव होगा जो हम बता रहे हैं...शॉर्ट्स पहनने में आराम लगे तो पहनो लेकिन किसी को दिखाने, कुछ साबित करने, किसी को आकर्षित करने या किसी समूह में स्वीकार्यता पाने जैसे दबावों या लोभ में नहीं...बोल्ड और खुलकर कहने के चक्कर में हमने स्त्री को उसकी यौनिकता तक ही सीमित किया है | हाँ ये ज़रूर है कि इन बातों के पीछे तर्क हों...उदाहरण के लिए सहजता और चयन के अधिकार का इस्तेमाल करते हुए अगर हम छठ और करवाचौथ को सही ठहराने लगें तो गड़बड़ है

इस विषय में जैसा मैंने कहा मैं उलझन में हूँ...पर अपना विचार बदल सकती हूँ यदि मुझे ठोस तर्क दिए जाएँ...बराबरी का मतलब मेरे लिए दूसरे की नासमझियों को अपनाना नहीं...सिगरेट मर्द भी पी सकते है और औरतें भी लेकिन अगर कोई औरत ये सोचकर सिगरेट पीती है कि इस तरह उसे मर्दों की बराबरी करनी है तो ये सिवाय नासमझी के कुछ भी नहीं...ये अलग बात है कि इस तरह की सोच और व्यवहार रखने वालों की तादाद भी कम नहीं...फ़िलहाल यौनिकता और देह सहजता के अर्थ को देह प्रदर्शन तक सीमित करने में मुझे कोई समझदारी नहीं दिखती...बराबरी सही अर्थों में करें जिसमें दूसरे की कमियां भी दूर की जाने की कोशिश हो....नारीवादी बनें ज़रूर बनें लेकिन ज़िम्मेदारी और समझदारी से...मैं जानती हूँ कि ये विचार मुझ पर परंपरागत होने का ठप्पा लगा सकते हैं लेकिन फिर भी...जेंडर समानता की अपनी समझ व कोशिशों में मैं किसी भी जल्दबाज़ी या बचकानी हरकत को करने से बचूंगी...“बोल्ड” और “बिंदास” होने की सिर्फ़ ये ही परिभाषाएं व तरीके नहीं और यौनिकता के मुद्दे को महज़ देह के कुछ ख़ास हिस्सों तक समेट देना भी हल नहीं...अच्छा ही होगा अगर नारीवाद के संघर्षों और आन्दोलनों को पढ़ें और उनके नतीजों से सबक लेते चलें...आधुनिक दिखने और आधुनिक होने का अंतर समझें और देखें कि ज़रूरत किस चीज़ की है....एक पितृसत्तात्मक समाज में हम महिलाओं को मौके बहुत मुश्किल से मिलते हैं इनका इस्तेमाल समझदारी से करें |